कुछ ही समय पहले हमने जब इस संगठन ‘मंथन’ की स्थापना की उसी समय हम लोगों ने निश्चित किया था कि देश व प्रदेश से जुड़े महत्वपूर्ण धार्मिक-सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों पर हम निष्पक्ष रूप से चर्चा करेंगे। आज ऐसे ही एक मुद्दे की तरफ मैं आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ तथा साथ ही इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है यह भी जानना है, क्यूँकि आपकी राय हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अभी हाल ही में उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ ने एक आदेश निकाला जिसके अनुसार सभी ढाबा, होटल या रेस्तराँ चलाने वाले व्यावसायियों के साथ-साथ तमाम ठेले-रेहड़ी इत्यादि द्वारा अपना व्यसाय करने वाले लोगों को अपने-अपने प्रतिष्ठानों पर अपना नाम भी लिखना होगा। कुछ अन्य राज्यों – उत्तराखण्ड, हरियाणा व असम के मुख्यमंत्रियों ने भी इसी प्रकार के आदेश जारी कर दिए। निश्चित ही इस आदेश की प्रतिक्रिया आनी ही थी अतः सभी ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस पर अपनी प्रतिक्रिया देनी प्रारंभ कर दी। विपक्ष ने भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरना आरम्भ कर दिया। जहाँ कुछ बुद्धिजीवियों ने इसे भाजपा के उत्तर-प्रदेश के आंतरिक-संघर्ष से जोड़ा, तो कुछ ने इसे उत्तर-प्रदेश के उप-चुनाव से जोड़ा तो वहीं बहुत से पत्रकारों ने इसे श्री नरेंद्र मोदी के पश्चात कौन भाजपा में उनका उत्तराधिकारी होगा इसको लेकर वर्चस्व का संघर्ष बताया। इसके अतिरिक्त कुछ ने तो अत्यंत आवेश में आकर इस आदेश की तुलना जर्मनी के तानाशाह हिटलर के आदेश से कर दी, जिसमें हिटलर ने यहूदियों का नामोनिशान मिटाने के लिए एक आदेश निकाला था। किन्तु यहाँ यह साफ कर देना उचित होगा कि योगी जी के आदेश की तुलना हिटलर के आदेश से बिल्कुल भी नहीं की जानी चाहिए क्यूंकि उन्होंने यह आदेश समस्त व्यावसायियों के लिए जारी किया था न कि किसी धर्म विशेष के लोगों के लिए। इसके अतिरिक्त कुछ बुद्धिजीवियों ने इस आदेश को मुस्लिमों के विरुद्ध बताया तथा विपक्ष ने भी इसमें अपना सुर मिला दिया। यधपि सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त कर इसका पटाक्षेप कर दिया किन्तु इस सबके पश्चात भी इस प्रकरण ने कई अनसुलझे प्रश्नों को सामने ला दिया जिनके उत्तर जानना आवश्यक लगता है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या कारण हैं कि एक धर्म विशेष के लोग इस प्रकार अपनी पहचान को छिपाकर दूसरे धर्म के देवी-देवताओं के नाम अथवा प्रतीकों को अपनाकर अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का संचालन कर रहे हैं। एक अन्य प्रश्न यह है कि क्यूँ इस आदेश को मात्र मुस्लिम विरोधी माना गया जबकि यह आदेश तो सभी धर्मों के होटलों, ढाबों व ठेले-रेहड़ी इत्यादि के संचालकों के लिए था चाहे फिर उनका सम्बन्ध किसी भी धर्म से हो। क्या उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा आदेश निकाला था कि यह आदेश सिर्फ मुस्लिमों के लिए जारी किया जाता है? यदि नहीं तो फिर इस आदेश की ऐसी व्याख्या क्यूँ की गयी क्या जानबूझकर इसकी ऐसी व्याख्या की गयी? इसके अलावा एक अन्य प्रश्न यह कि क्यूँ सिर्फ मुस्लिम-धर्म के व्यवसायियों ने इसे अपने विरुद्ध माना। यदि उन पर यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं के नामों पर अपने प्रतिष्ठानों के नाम रखे और फिर अपने नामों को छिपाया तो क्यूँ नहीं वो लोग उन कारणों को साफ-साफ बताते कि उन्होंने ऐसा क्यूँ किया।
यदि वो यह कहते हैं कि हिन्दू देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा के वशीभूत होकर उन्होंने अपने व्यावसायिक संस्थानों के नाम रखे तो फिर वो यह बताने का कष्ट करें कि उन्होंने उन प्रतिष्ठानों पर साफ-साफ स्पष्ट अक्षरों में अपना नाम क्यूँ नहीं लिखा? जहाँ एक तरफ कुछ मुस्लिम चरमपंथियों को ‘वंदे-मातरम’, ‘भारत माता की जय’, जैसे देशभक्ति पूर्ण नारे इस्लाम विरोधी लगते हैं, तथा उन्हें लगता है कि इससे इस्लाम को खतरा उत्पन्न हो जाता है तो फिर उनके ही धर्म के कुछ लोग जब हिन्दू देवी-देवताओं के नामों का सहारा लेकर अपनी जीविका चलाते हैं तो क्या उन्हें इससे इस्लाम को कोई खतरा नहीं लगता ? इसके अतिरिक्त बात-बात पर ‘हलाल’ और ‘हराम’ की बातें करने वाले उन्हीं कट्टर मुस्लिम-चरमपंथियों से मेरा यह प्रश्न है कि क्या इस प्रकार के कपट से व्यावसायिक प्रतिष्ठान चलाकर रोजी-रोटी कमाना क्या यह ‘हराम’ की श्रेणी में नहीं आता है? क्या इससे यह तात्पर्य नहीं निकाला जा सकता है कि अपने लाभ के लिए ऐसे लोग किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ करने से जरा भी नहीं झिझकते।
इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जरा-जरा सी बात पर फतवा जारी करने वाले इमाम व मौलवी ऐसे मामलों में आश्चर्य-जनक रूप से कैसे शांत रहते हैं ये भी बहुत ही विचित्र है। साथ ही इस प्रकार के मामले जब सामने आते हैं तो उन मुफ्ती-मौलवियों के दोहरे चरित्र को भी उजागर करते हैं जो धर्म-निरपेक्षता को अपनी बपौती मानते हैं। इनकी धर्म-निरपेक्षता भी समय व परिस्थितियों के अनुसार अपने हिसाब से या यूँ कहें कि अपने स्वार्थ के अनुसार बदलती रहती है। मजे की बात यह है कि पहले ऐसे लोग कपटपूर्ण कार्य करते हैं और जब कोई ऐसा आदेश निकलता है जिनसे इनके छिपे हुए कुकृत्यों पर पड़ा पर्दा उठता है तब यही लोग विकटिम-कार्ड खेलते हैं और छद्म धर्म-निरपेक्षता की दुहाई देते फिरते हैं। हमारा यहाँ पर हिन्दू-मुस्लिम अथवा मांसाहार या शाकाहार से कोई लेना-देना नहीं है ये प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत मामला है। यह सभी जानते हैं कि अधिकांशतः मुस्लिम माँसाहारी होते हैं और हिंदुओं में अधिकांशतः शाकाहारी होते हैं यधपि कुछ हिन्दू माँसाहरी भी होते हैं। किन्तु जो हिन्दू माँसाहरी होते हैं वो भी कुछ माह विशेष जैसे श्रावण मास व कुछ दिन विशेष जैसे श्राद्ध के दिनों में, मंगलवार इत्यादि के दिनों में माँसाहार से परहेज करते हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। इसलिए यह कैसे सम्भव है कि जिन भोजनालयों के नाम उन्होंने वैष्णव/दुर्गा या ऐसे ही मिलते-जुलते कुछ नाम रखे वहाँ इन दिनों में माँस न बनता हो क्यूंकी उनके यहाँ तो हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही आते होंगे और मुस्लिम लोग तो इन दिनों में भी माँस खाते ही होंगे।
हमारा यहाँ पर यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि मुस्लिम ढाबा, रेस्तराँ, होटल इत्यादि न खोलें। प्रत्येक व्यवसाय पर सभी धर्मों के अनुयायियों का हक है चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो। इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति इसके लिए स्वतंत्र है कि वह कहीं भी बिना किसी धार्मिक पूर्वाग्रह के भोजन कर सके चाहे उस संस्थान का मालिक हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिख हो या फिर ईसाई। किन्तु प्रतिष्ठानों पर हिन्दू-आस्था से जुड़े नामों को लिखना और साथ ही अपना नाम न लिखना यह दर्शाता है कि ये लोगों के साथ धोखा कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है ऐसे लोगों ने इस प्रकार का कुकृत्य करके लोगों के साथ धोखा किया है और क्यूँ न सभी पर धोखा-धड़ी का मुकद्दमा चलाया जाना चाहिये। इनकी इसी तरह की करतूतों से धार्मिक सौहार्द बिगड़ता है। इसके साथ-साथ उन तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों से भी यह विनम्र निवेदन है कि किसी भी बात की गहराई में जाए बिना हर बात पर मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति बिल्कुल भी उचित नहीं है। क्यूंकि ऐसी ही नीतियों से हम देश को पहले ही गर्त में ले जा चुके हैं अब इससे और आगे धकेलने की इजाजत बिल्कुल भी नहीं दी जा सकती। मेरा मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों से भी निवेदन है कि स्वयं आगे आयें और अपने लोगों का उचित मार्गदर्शन करें। इसके साथ-साथ सभी को यह भी समझना होगा कि ‘सहिष्णुता’ का उत्तरदायित्व मात्र बहुसंख्यक लोगों पर नहीं है इसका दायित्व देश में रहने वाले सभी लोगों पर है चाहे वो किसी भी धर्म के मानने वाले हों।
धन्यवाद
प्रवीन लखेड़ा